Thursday, August 09, 2007

कि हर ख्वाहिश पे दम निकले

मुझे लौटा दो ना...
वो वन रूम अपार्टमेंट की चाबी
वो लोहे का एक नन्हा सा टुकडा
जिसे मुट्ठी में बाँध गृहस्वामिनी समझती थी खुद को

वो किचन...वो चार दीवारें...वो दीवार से लगे दो बेड
वो कमरे की खिड़की पर पडी चादर

वापस कर दो वो सारे सूर्यास्तों में घुली चाय की चुस्की
वो रात को देर से बाहर खाने के लिए जाना

वो चांदनी रातों में छत पे जाने की जिद करना
वो जाड़े की सुबहों में धूप तापते हुये अखबार पढ़ना

हर शाम तुम्हारे लिए कुछ ना कुछ लाना
और तुम्हारा बच्चों की तरह मचल जाना

वो भुट्टे पे लगी नीबू की खटास
बारिश में एक कप काफ़ी की गर्माहट

नहीं दे सकोगे शायद इतना सारा कुछ

इसलिये अभी के लिए
बस कमरे की चाबी दे दो ना