मुझे लौटा दो ना...
वो वन रूम अपार्टमेंट की चाबी
वो लोहे का एक नन्हा सा टुकडा
जिसे मुट्ठी में बाँध गृहस्वामिनी समझती थी खुद को
वो किचन...वो चार दीवारें...वो दीवार से लगे दो बेड
वो कमरे की खिड़की पर पडी चादर
वापस कर दो वो सारे सूर्यास्तों में घुली चाय की चुस्की
वो रात को देर से बाहर खाने के लिए जाना
वो चांदनी रातों में छत पे जाने की जिद करना
वो जाड़े की सुबहों में धूप तापते हुये अखबार पढ़ना
हर शाम तुम्हारे लिए कुछ ना कुछ लाना
और तुम्हारा बच्चों की तरह मचल जाना
वो भुट्टे पे लगी नीबू की खटास
बारिश में एक कप काफ़ी की गर्माहट
नहीं दे सकोगे शायद इतना सारा कुछ
इसलिये अभी के लिए
बस कमरे की चाबी दे दो ना
5 comments:
कहीं कुछ बड़ी शिद्दत से याद किया जा रहा है...बढ़िया है. निरंतर लिखें, शुभकामनायें.
shukriya...bas kuch yaadon ko sahejne ki koshish ki hai
aapki ye roop pahli bar padha.....aor yakeen janiye....bahut achhi rachna hai..keep trail....
bahut hi pyari aur yaadon se paripurn rachna hai
बहुत सराहनीय प्रस्तुति.
बहुत सुंदर बात कही है इन पंक्तियों में. दिल को छू गयी. आभार !
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