Monday, June 04, 2007

मंज़िल

थोडा आसमां से...एक बादल के टुकडे से धूप की किरण ली
थोड़ी जमीन से भीगी मिटटी की सोंधी महक ली

थोड़े जंगलों में मदमाती हवाओं का बेलौसपना
थोडा पहाड़ी नदियों का गीत लिया

थोडा अपनी बाँहों का संबल
थोडा अपनी धड़कन की घबराहट भी ली

जाने कहाँ कहाँ से क्या उठा कर...
तुमने मुझे पूरा कर दिया

कोशिश

बारिशों में काफी देर भीगती रही...
शायद हर एहसास को बह जाने देना चाहती थी

एहसास जो भीगे दुपट्टे के छोर से टपकता रहा...
और सड़क के किनारे बहती छोटी छोटी नदियों में मिलता रहा

जमीन से भाप उठ रही थी...बहुत तपी थी मेरे पैरों के नीचे की मिटटी
सारे दिन...धूप में...तेज़ हवाएं भी चली थी

अभी आवारा धूल पानी से मिलकर स्थिर हो गयी थी
वरना तो उसकी फितरत ही नहीं थी कहीं भी ठहरना

सड़कें...धुल कर भी नयी नहीं लग रही थीं
काफी पुरानी लग रही थी...लगभग वैसी ही जैसी ही छोड़कर गयी थी

धुआं धुआं सा सब हो रहा था...धुंधला
और इस धुंध में कुछ भी नहीं तलाश रही थी मैं

पेड सुलग रहे थे, पगडंडियाँ नज़र नहीं आ रही थीं
सब बिखरा बिखरा लग रहा था...मेरी तरह

और मैंने जाना की मैं यहाँ सब छोड़ देना चाहती थी
क्योंकि सब चुभता था...

मैंने जाना...
रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं

तो उनमें हमारा कुछ रह जाता है
और वो हमारा कुछ हम चाह कर भी बहा नहीं सकते हैं

वो थोडा सा कुछ कभी वापस नहीं मिलता
और हम अधूरे हो जाते हैं .... हमेशा के लिए