Monday, June 04, 2007

कोशिश

बारिशों में काफी देर भीगती रही...
शायद हर एहसास को बह जाने देना चाहती थी

एहसास जो भीगे दुपट्टे के छोर से टपकता रहा...
और सड़क के किनारे बहती छोटी छोटी नदियों में मिलता रहा

जमीन से भाप उठ रही थी...बहुत तपी थी मेरे पैरों के नीचे की मिटटी
सारे दिन...धूप में...तेज़ हवाएं भी चली थी

अभी आवारा धूल पानी से मिलकर स्थिर हो गयी थी
वरना तो उसकी फितरत ही नहीं थी कहीं भी ठहरना

सड़कें...धुल कर भी नयी नहीं लग रही थीं
काफी पुरानी लग रही थी...लगभग वैसी ही जैसी ही छोड़कर गयी थी

धुआं धुआं सा सब हो रहा था...धुंधला
और इस धुंध में कुछ भी नहीं तलाश रही थी मैं

पेड सुलग रहे थे, पगडंडियाँ नज़र नहीं आ रही थीं
सब बिखरा बिखरा लग रहा था...मेरी तरह

और मैंने जाना की मैं यहाँ सब छोड़ देना चाहती थी
क्योंकि सब चुभता था...

मैंने जाना...
रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं

तो उनमें हमारा कुछ रह जाता है
और वो हमारा कुछ हम चाह कर भी बहा नहीं सकते हैं

वो थोडा सा कुछ कभी वापस नहीं मिलता
और हम अधूरे हो जाते हैं .... हमेशा के लिए

3 comments:

उन्मुक्त said...

भावनाओं का प्रवाह अच्छा है।

पारुल "पुखराज" said...

मैंने जाना...
रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं

तो उनमें हमारा कुछ रह जाता है
और वो हमारा कुछ हम चाह कर भी बहा नहीं सकते हैं

वो थोडा सा कुछ कभी वापस नहीं मिलता
और हम अधूरे हो जाते हैं .... हमेशा के लिए

sach hi to hai....jub apna mun udaas ho aur aisa kuch padhney ko mil jaaye..to akelapan nahi lagtaa..aapko padhna achacha lag raha hai

डॉ .अनुराग said...

मैंने जाना...
रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं

तो उनमें हमारा कुछ रह जाता है
और वो हमारा कुछ हम चाह कर भी बहा नहीं सकते हैं

वो थोडा सा कुछ कभी वापस नहीं मिलता
और हम अधूरे हो जाते हैं ....

bahut sundar.....bahut hi sundar kavita.....bas jo khatka is rachna me vo ye aakhiri line.........


हमेशा के लिए....

aisa mera sochna hai.