क्या तुम्हें भी मिलते हैं?
मेज़ की दराज साफ करते हुए
हँसी के कुछ टुकडे, तस्वीरों में
क्या कभी दो कप चाय कह देते हो
अनजाने में...
और ख़ुद ही पी लेते हो
क्या कभी लगता है
कि मैं फ़िर से लेट हो गई हूँ
आ जाऊँगी थोडी देर में...
क्या तुम अब भी बारिशों में
पकोड़े खाने और कॉफी पीने जाते हो
उनका स्वाद अब भी वैसा ही लगता है?
क्या तुम्हें भी लगता है
कि गलियाँ सवाल करती है
अकेले क्यों आए हो?
इतने सवालों का तो खैर क्या करोगे
बस इतना बता दो...
क्या उस कमरे को
अब भी घर कहते हो?