उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चाँद औ' तारे
उठा तूफ़ान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे
मगर इस रात में भी लौ लगाये कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है?
गगन में गर्व से उठ उठ
गगन में गर्व से घिर घिर
गरज कहती घटाएं हैं
नहीं होगा उजाला फ़िर
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जगाये कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है ?
प्रलय की रात को सोचे
प्रणय की बात क्या कोई
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोयी
किसी के पंथ में पलकें बिछाये कौन बैठा है?
अँधेरी रातमे दीपक जलाये कौन बैठा है ?
हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियाँ, कहीं मर्म को छूती हैं, खास तौर से अन्तिम पंक्तियाँ मुझे बहुत ही ज्यादा पसंद हैं। प्रलय की रात और प्रणय की बात एक ही साथ कहना कोई genius ही कर सकता है।
प्रणय, प्यार, अनुराग, स्नेह, प्यार भी बस एक चीज़ नहीं होता...
किसी को चाहना बस चाहने भर के लिए...सिर्फ़ वक्त के होने भर से...ये भी नहीं की उसे यादों में हर पल संजो के रख दिया जाए...वो तो ममी बन जाता है। प्यार...अमूर्त, सजीव, एक एहसास वो वक्त की गणना में नहीं आता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की मैंने किसी से कितने समय के लिए प्यार किया, हमने कितना वक्त साथ गुजरा...या ये भी की हमारी यादें कैसी हैं...
यादों का वो पुलिंदा तो तुम्हारे पास छोड़ के आ गई थी...मेरे पास यादें भी तो नहीं है न...इसलिए तो तुम्हें याद नहीं करती हूँ। प्यार क्या बस होना होता है...
जैसे उस लम्हे के बाद कुछ नहीं था, जैसे उस लम्हे के पहले कुछ नहीं था...वो लम्हा isolation में था ...उसका अपना स्वतंत्र वजूद था...वो मेरे और तुम्हारे होने से नहीं बस अपने आप से था। और वो लम्हा आज भी इतना सच्चा है जैसे तुम्हारे खुल के आती हुयी हँसी...जैसे तुम्हारी आंखों का पारदर्शी होना...जैसे की रातों की वो ठंढ...
आज जो तुम हो और आज जो मैं हूँ...हमसे उन लोगो का कोई रिश्ता नहीं था जो जेएनयू की गलियों में कोहरे ढकी सडकों पर हाथ थामे काफी पीते टहलते रहते थे...वो लोग तुम्हें आज भी मिल जायेंगे...
मैं जाती थी उनसे मिलने कभी कभी...बड़ा सुकून सा मिलता था पर अब बड़ी दूर आ गई हूँ, शायद वो मुझे याद करते हों।
कभी तुम जाते हो क्या...कभी मिल आया करो...उन्हें अच्छा लगेगा
और शायद तुम्हें भी...
Jindagi ehsaason ka pulinda hi to hai, kabhi fursat me kabhi jaldi me bandh leti hun apne dupatte ke chor mein ek lamha aur ek ehsaas fir se kavita ban jaata hai. Rishton ko parat dar parat mein jeeti hun main. Jindagi yun hi nahin guzar jaati, meri saanson mein utar kar dhadkanon ko ek geet dena hota hai use.
Tuesday, August 26, 2008
Wednesday, August 13, 2008
दस्तक...
तुम्हें देखती हूँ सामने
तुम्हारी मुस्कान को छूते ही
पानी की लहरें सी बनती हैं
और खो जाता है झील में नजर आता तुम्हारा अक्स
वैसे ही जैसे बारिशों में
खो जाया करता था मेरा छाता
और भीगते रहते थे हम दोनों
तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है
पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...
और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...
तुम्हारी मुस्कान को छूते ही
पानी की लहरें सी बनती हैं
और खो जाता है झील में नजर आता तुम्हारा अक्स
वैसे ही जैसे बारिशों में
खो जाया करता था मेरा छाता
और भीगते रहते थे हम दोनों
तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है
पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...
और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...
Tuesday, August 12, 2008
लौटा सकोगे क्या?
लौटा दो न
वही अधूरी सी कहानी
वो राहें जिनपर जा न सके
वो सावन जिसमें भीगे नहीं
वो चाय जो प्याली में बची रह गई
वो सितारे जो मिल के गिन नहीं सके...
ये गीत मुझे बहुत पसंद है, और जाने कब से...अधूरेपन को जिस तरह से लफ्जों में बांधा गया है कि लगता है अहसासों को बयां करने की हद यही है...
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