Monday, March 29, 2010

तुम्हारा नाम


गले में अटका हुआ है कब से
सालों से नहीं लिया है मैंने तुम्हारा नाम

शायद आखिरी हिचकी में होठों पे आ जाए

Friday, March 12, 2010

सिग्नेचर


आज मैंने नयी कलम खरीदी, निब देखने के लिए कागज पर घसीटा, बिना ध्यान दिए...फिर अचानक डर लगा कि जाने क्या लिखा होगा, कनखियाँ चुरा कर नीचे ताका...कागज पर मेरा ही नाम था. अरसा बाद, लगा जैसे अपने आप को फिर से पा लिया है. तुम्हारे नाम, तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारी यादों और हर आदत से निकल आई हूँ. सुकून हुआ, यूँ तुम्हें याद कर के तुम्हें भूलने का.

अब लगता है मैं तुम्हें पूरी तरह भूल चुकी हूँ. शायद.