Monday, April 28, 2008

शायद

शायद
इस जिंदगी में
एक ऐसा दिन भी आएगा

जब हम एक दूसरे के साथ हँस सकेंगे
कुछ पुराने किस्से याद करके मैं तुम्हें चिढ़ा सकूंगी

कुछ पुराने गाने साथ में गा सकेंगे
शायद तुम्हारा सुर तब तक थोड़ा ठीक हो जाए

शायद बहुत सालों बाद कभी अकेले बैठोगे
तो मेरी किसी शरारत पे हँस सकोगे
और हो सकता है मुझे फ़ोन भी कर लो

या शायद ये भी हो सकता है
किसी दिन किसी दोस्त से पता चले
कि मेरा ऊपर से बुलावा आ गया था

और तुम्हें अफ़सोस हो...
यूं ताउम्र रूठे नहीं रहना चाहिए था...

Friday, April 25, 2008

यादें...



दुपट्टे की ओट/ सुबह की धूप

एक प्याली चाय/ इंतज़ार

उसके ना कहने के बाद भी


शब्दों के साथ खेलना

खामोशी महसूस करना

तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ

जीना...


जिंदगी के इन लम्हों के साथ

चोर सिपाही खेलना

थके थके लम्हों को थपकियाँ देकर सुलाना

कतरा कतरा साँझ

किताबों में बंद करना

हरसिंगार की खुशबू

यादों में सहेजना

कविता सी बन जाना

प्यार, शायद

...




याद नहीं आती है तुम्हारी

तुम चली आती हो

हर रात

जब देखता हूँ तुम्हें

तस्वीरों में मुस्कुराते हुए

मेरे पास ही तो रहती हो तुम

नहीं?


तो कमरे का अँधेरा

उजाला सा क्यों लगने लगता है

मेरे पलकों के पास

तुम्हारी मौजूदगी का अहसास क्यों पाता हूँ

इस तरह की मीठी नींद

तुम्हारी थपकियों के बगैर तो नहीं आती
मैं हमेशा मुस्कुराते हुए तो नहीं सोता हूँ

बताओ ना !!!

तुम ही थी कल भी

सिहरन होने पर चादर ओढ़ाने तुम नहीं आई थी !!

बोल दो, एक और झूठ

जैसे कि हमेशा कहती हो...
वो मैं नहीं थी

वो मैं नहीं थी...

यूँ ही

कुछ वक्त का तकाजा कुछ आरजुओं की शरारत

हर राह के आख़िर में अपना घर नज़र आता है

तुम पास से लगते हो जब झुकती हैं पलकें

ख्यालों का ये दीवानापन बेतरहा तडपता है

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कुछ सफ्हे शिकायत करते हैं

तुम्हारे सदियों पहले जाने की

कुछ लम्हे कोशिश करते हैं

तुम्हें याद कर मुस्कुराने की


उन राहों की खामोशियों सी

कुछ गीतों में घुल जाती हूँ

ख़ुद को खोकर जाने कैसे

वो हर लम्हा जी जाती हूँ
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टुकड़े

कहीं कहीं टुकड़ों में
देखती हूँ तुमको...
कभी मुस्कुराते हुए
कहीं खिलखिलाते हुए

जैसे अंजुरी में समेट लेना चाहती हूँ तुम्हें
आँचल में कहीं बाँध लेना चाहती हूँ

जाने किस पगडण्डी के
कौन से मोड़ पर
वो एक लम्हा रुका हुआ है आज भी

जिस लम्हा हमारे रास्ते अलग हो गए थे
जहाँ से मैं कभी लौट नहीं पायी
पर आज भी न जाने क्यों
कभी कभी
लगता है
मुड़ के देखूंगी तो
हम दोनों वही खड़े होंगे