Sunday, July 06, 2008

क्यों?

अब नहीं आतीं
रात भर जाग के बात करने वाली रातें...

अब नहीं होते
खामोशी वाले कितने घंटे...

अब नहीं मिलते
मुश्किल से निकाले हुए पाँच मिनट...

अब नहीं आता
चार चार पन्नो का फ़ोन बिल...

अब नहीं जगाती
डर लगने पर किसी भी पहर तुम्हें...

अब नहीं करती
बारिशों में भीगने की जिद...

अब नहीं मांगती
तुम्हारी जूठी कॉफी...

अब नहीं खरीदती
रजनीगन्धा के फूल हर शाम...

फ़िर भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ
क्यों?कैसे?

शायद...ऐसे ही :)

10 comments:

सतीश पंचम said...

इतनी गहराई से अपने दिल की बात शब्दों में पिरोने वाला वही हो सकता है जिसने ये पल जिया हो, खुद महसूस किया हो, अगर मैं गलत नहीं हूं तो शायद आप अब भी वो पल जी रही हैं, तभी शब्दों मे बयां हो रहे हैं। - कविता अच्छी लिखी, बहूत सुंदर।

GULMOHAR said...

अनुभूति की तीव्रता है आपकी रचना में... सचमुच.... "बिल्डिंगों की भीड़ में गुम हो गयी है बस्तियां,अब कहाँ सावन के झूले अब कहाँ वो मस्तियाँ..."

डॉ .अनुराग said...

सोचता हूँ इस कविता को अपने साथ ले जायूं...बेहद खूबसूरत..

Vinay said...

really very good thoughts!

Shishir Shah said...

truly speaking...this poem is one of its kind...a gem...loved it...

AMIT KUMAR said...

वह तेरा रंग है
जो मेरे चेहरे पर चमकता है
लोग यूँ ही मुझे कमाल कहते हैं

आपकी कविता के लिए कुछ लिखने से ज्यादा सार्थक उसे जीना लगता है.इसलिए यह पंक्ति आपके इस ख्याल के नाम.

pallavi trivedi said...

ya kahu...nishabd hoon. bahut hi pyaari rachna.

अंगूठा छाप said...

oh!!


really really great pooja...

travel30 said...

you are a real master of words.. b'ful poem

प्रशांत मलिक said...

really very nice and touching