तुम्हें देखती हूँ सामने
तुम्हारी मुस्कान को छूते ही
पानी की लहरें सी बनती हैं
और खो जाता है झील में नजर आता तुम्हारा अक्स
वैसे ही जैसे बारिशों में
खो जाया करता था मेरा छाता
और भीगते रहते थे हम दोनों
तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है
पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...
और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...
6 comments:
पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...
और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...
bahut acchhey..v nice
तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है
एक ओर "पूजा अंदाज...." बेहद खूबसूरत.........बिल्कुल खालिस ....
बहुत खूब! वाह वाह!!
तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है
ek common sii baat ko khoobsoorat bana diya aapane! wah!
आसान से लफजों से सीधी साधी सी सोच की सफल अभिव्यक्ति।
प्रलय की रात को सोचे
प्रणय की बात क्या कोई
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोयी
खूबसूरत..
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