Jindagi ehsaason ka pulinda hi to hai, kabhi fursat me kabhi jaldi me bandh leti hun apne dupatte ke chor mein ek lamha aur ek ehsaas fir se kavita ban jaata hai. Rishton ko parat dar parat mein jeeti hun main. Jindagi yun hi nahin guzar jaati, meri saanson mein utar kar dhadkanon ko ek geet dena hota hai use.
Friday, September 26, 2008
एक शाम जो ढली नहीं...एक चाँद जो निकला नहीं
"जब से तुम ठहर ठहर कर बोलने लगी हो"
"पागल हो क्या, मैं तो वैसी ही हूँ, और वैसे ही बोलती हूँ", तुमने कुछ नहीं कहा, बस देखा...हाँ तुम्हारी आँखें अब भी वैसी ही थी। पारदर्शी.
"जेएनयु जा पाते हो क्या? "
"नहीं", छोटा सा जवाब था तुम्हारा। मैंने पूछना चाहा था, जा नहीं पाते या जाते नहीं हो. फ़िर सोचा कि क्या फर्क पड़ जायेगा जवाब सुनकर.
फ़िर भी मन नहीं माना, पूछ ही लिया, "क्यों?"
"अकेले जाने का मन नहीं करता। "
"अरे ये कोई बात हुयी, अकेले क्यों जाओगे, किसी को ले लो न अपने साथ, अमित तो वहीँ ब्रह्मपुत्र में है न, या शिवम् को ले लों" । मैं इतनी आसानी से हार थोड़े मान जाती.
वो हलके से मुस्कुराया, "उनके साथ भी अकेला ही होता हूँ। "
थोडी देर की खामोशी...सन्नाटा...बिल्कुल वक्त के ठहर जाने जैसा। जैसे सब यहीं टूट के बिखर जायेगा, भूचाल आएगा और हम दोनों जमीन में समा जायेंगे।
पर ऐसा सच में थोड़े होता है, भले ही दिल्ली भूकंप के बिल्कुल epicentre पर हो.
"यहाँ क्यों आई अभी? मुझसे मिलने?", तुमने पूछा.
हम पार्थसारथी रॉक पर बैठे थे, पाँव झुलाते हुए...सामने सूरज डूब रहा था, उसको पिछले तीन सालो में कोई फर्क नहीं पड़ा था, हालाँकि हम बहुत दूर चले गए थे एक दूसरे से.
"नहीं", मैंने पश्चिम में देखते हुए कहा था..."अपने आप से मिलने। तुमने मुझे यहीं चारदीवारी में बंद कर दिया है. काफ़ी दिनों से ख़ुद को ढूंढ रही थी, जब कहीं नहीं मिली तो वापस यहीं आ गई. ठीक किया न?"
"बिल्कुल ग़लत किया... वापस जा पाओगी?", फ़िर से सवाल.
"उहूँ", मैंने सर हिलाते हुए कहा, "जाने थोड़े आई हूँ। मैं तो बस देखने आई हूँ. तुमको भी...ये सब मेरे लिए अब अजायबघर हो गया है. वापस आ के देख सकती हूँ, छू सकती हूँ, पर जी नहीं सकती. "
इतनी बातों और इतनी खामोशी के बीच बस एक "हूँ", तुम्हारी तरफ़ से.
चाँद उग गया था, लाल और सुनहरी चांदनी छिटकने लगी थी। "मैंने कभी इतना लाल चाँद नहीं देखा, यहाँ पर ऐसा क्यों होता है.?" तुम्हारे पास जवाब नहीं था या तुम्हारा देने का मन नहीं था, पता नहीं. तुम चुप रहे.लौटने का वक्त हो रहा था...पत्थरों से उतर कर जैसे ही पगडण्डी पर पहुंचे चाँद अचानक बादल में छुप गया, मैंने देखा उसी पेड़ के नीचे दो लोग खिलखिला उठे...शायद लड़की का पैर फिसल गया था और वो गिरने वाली थी.अंधेरे में मैंने तुम्हारा चेहरा नहीं देखा, पर मैं जानती हूँ कि तुमने भी उन्हें पहचान लिया था.
"तुम इन्ही से मिलने आई थी न?" तुमने पुछा..."हाँ " एक शब्द का जवाब.
और हम दोनों ने देखा...उस लड़की को जिसकी बातें कभी रूकती ही नहीं थी, और उस लड़के को जो खिलखिला के हँसता था...वो लड़की जिसे हवा में दुपट्टा उड़ना पसंद था, आलू के पराठे, गुझिया और मामू के ढाबे से हॉस्टल तक रेस लगना पसंद था...और जिसे वो लड़का पसंद था जो खिलखिला के हँसता था।
Tuesday, September 23, 2008
यूँ ही...उल्टा पुल्टा
मुझे एक और जिंदगी चाहिए
जो सिर्फ़ तुम्हारे साथ बिता सकूँ
शुरू से अंत तक...
जब मौत हर घड़ी मँडराती न रहे
सेकंड की टिक टिक के साथ...
हर वक्त अपने साथ ले चलने की धमकी लिए
मुझे एक और जिंदगी चाहिए
ताकि मैं देख सकूँ
जंगल में जाती वो पगडण्डी कहाँ पहुँचती है
ताकि एक बार उस टीले पर से चांदनी रात में उतर सकूँ
एक और जिंदगी
जिसमे मुझे चाय पीने की आदत हो
ताकि तुम्हारा कप छीन कर पी सकूँ
एक और जिंदगी
जिसमे मैं लड़का होऊं
ताकि जबरन किसी रिश्ते में बंधे बिना
मैं हमेशा तुम्हारी दोस्त बनी रह सकूँ.
Wednesday, September 10, 2008
जहाँ चैन से मर जाएँ...
इतनी मसरूफियत कि ख्वाब में भी आ नहीं सकते
तरसाओगे अपनी आवाज के एक कतरे को भी
खफा यूँ हो कि एक बार नाम लेकर बुला नहीं सकते
घर बदल लिया कि रास्ते बदल दिए तूने
कहाँ रहने लगे कि हम चाह कर भी जा नहीं सकते
अरसा बीता मगर साँस लेते हैं आज भी वो दिन
तू भी मानता है कि हम उन्हें जिन्दा दफना नहीं सकते
कैसे फुर्सत मिल जाती है तुझे नफरतों के लिए
इतनी छोटी है जिंदगी कि जी भर मुस्कुरा नहीं सकते
तेरी जिंदगी से बस एक कोने की गुज़ारिश है
जहाँ चैन से मर जायें कि कहीं और सुकूं पा नहीं सकते
Thursday, September 04, 2008
तुझे भूलते जाते हैं...
बुझती हुयी साँसों से हर वादा निभाते हैं
तुझे भूलते जाते हैं...तुझे भूलते जाते हैं
उम्मीद से हर रिश्ता तोडे हुए हम
तेरे दर है जब से छोड़ा..अपने घर भी कहाँ जाते हैं
वीरानियों से निस्बत कुछ दिन से बढ़ गई है
हम तनहा रह के ख़ुद को तेरे और करीब पाते हैं
खुदा भी आजकल है मुझपर मेहरबान अजब देखो
जब चाहती हूँ अश्क उमड़ते चले आते हैं
तू फ़िक्र न कर तेरी रुसवाई का मेरे हमदम
जिससे भी मिलते हैं हर लम्हा मुस्कुराते हैं
अब तो खूब सीख लिया हमने झूठ बोलने का हुनर
कह रहे हैं तुझे भूलते जाते हैं...हाँ, भूलते जाते हैं...