मैं बहुत अच्छा स्केच नहीं करती...पर कभी कभी मूड होता है तो कुछ पेंसिल से बनाना चाहती हूँ. ठीक ठाक बन भी जाता है, बहुत खूबसूरत नहीं तो बहुत ख़राब भी नहीं बनता. मेरी एक कॉपी है जिसमें मैं अक्सर कुछ कुछ बनाती रहती हूँ...कभी कोई ख्वाब, कभी कोई याद...कभी सामने पड़ा हुआ कुछ.
जैसे वो लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ कर सामने के लैम्प पोस्ट और पेड़ों की तस्वीर बनायी थी...मेरा टाईमपास का यही तरीका रहा है, जब कि मेरे पास कोई किताब नहीं हो या फिर जब तुम्हारी याद आ रही हो और कुछ भी पढने से तुम्हें भूलना मुमकिन ना होता हो.
जब कि तुम याद आते हो, मैं अक्सर कुछ स्केच करने बैठ जाती हूँ...इक इक रेखा में तुमको मुस्कुराते, चिढ़ाते देखती हूँ. तस्वीर कभी मुकम्मल नहीं होती. इस तरह के स्केच का कोई पैटर्न भी नहीं होता...अपनी कॉपी के अनगिन स्केच में, आज भी हर उस स्केच को पहचान सकती हूँ जो तुम्हें याद करके बनायी थी.
कुछ स्केचेस के पन्ने...थोड़े पनियाले होते हैं, गीले होने के बाद सूखे हुए से.