Jindagi ehsaason ka pulinda hi to hai, kabhi fursat me kabhi jaldi me bandh leti hun apne dupatte ke chor mein ek lamha aur ek ehsaas fir se kavita ban jaata hai. Rishton ko parat dar parat mein jeeti hun main. Jindagi yun hi nahin guzar jaati, meri saanson mein utar kar dhadkanon ko ek geet dena hota hai use.
Friday, December 21, 2007
scattered thoughts
Thursday, August 09, 2007
कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
वो वन रूम अपार्टमेंट की चाबी
वो लोहे का एक नन्हा सा टुकडा
जिसे मुट्ठी में बाँध गृहस्वामिनी समझती थी खुद को
वो किचन...वो चार दीवारें...वो दीवार से लगे दो बेड
वो कमरे की खिड़की पर पडी चादर
वापस कर दो वो सारे सूर्यास्तों में घुली चाय की चुस्की
वो रात को देर से बाहर खाने के लिए जाना
वो चांदनी रातों में छत पे जाने की जिद करना
वो जाड़े की सुबहों में धूप तापते हुये अखबार पढ़ना
हर शाम तुम्हारे लिए कुछ ना कुछ लाना
और तुम्हारा बच्चों की तरह मचल जाना
वो भुट्टे पे लगी नीबू की खटास
बारिश में एक कप काफ़ी की गर्माहट
नहीं दे सकोगे शायद इतना सारा कुछ
इसलिये अभी के लिए
बस कमरे की चाबी दे दो ना
Monday, June 04, 2007
मंज़िल
थोड़ी जमीन से भीगी मिटटी की सोंधी महक ली
थोड़े जंगलों में मदमाती हवाओं का बेलौसपना
थोडा पहाड़ी नदियों का गीत लिया
थोडा अपनी बाँहों का संबल
थोडा अपनी धड़कन की घबराहट भी ली
जाने कहाँ कहाँ से क्या उठा कर...
तुमने मुझे पूरा कर दिया
कोशिश
शायद हर एहसास को बह जाने देना चाहती थी
एहसास जो भीगे दुपट्टे के छोर से टपकता रहा...
और सड़क के किनारे बहती छोटी छोटी नदियों में मिलता रहा
जमीन से भाप उठ रही थी...बहुत तपी थी मेरे पैरों के नीचे की मिटटी
सारे दिन...धूप में...तेज़ हवाएं भी चली थी
अभी आवारा धूल पानी से मिलकर स्थिर हो गयी थी
वरना तो उसकी फितरत ही नहीं थी कहीं भी ठहरना
सड़कें...धुल कर भी नयी नहीं लग रही थीं
काफी पुरानी लग रही थी...लगभग वैसी ही जैसी ही छोड़कर गयी थी
धुआं धुआं सा सब हो रहा था...धुंधला
और इस धुंध में कुछ भी नहीं तलाश रही थी मैं
पेड सुलग रहे थे, पगडंडियाँ नज़र नहीं आ रही थीं
सब बिखरा बिखरा लग रहा था...मेरी तरह
और मैंने जाना की मैं यहाँ सब छोड़ देना चाहती थी
क्योंकि सब चुभता था...
मैंने जाना...
रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं
तो उनमें हमारा कुछ रह जाता है
और वो हमारा कुछ हम चाह कर भी बहा नहीं सकते हैं
वो थोडा सा कुछ कभी वापस नहीं मिलता
और हम अधूरे हो जाते हैं .... हमेशा के लिए
Friday, April 13, 2007
एक रिश्ते के बाद...
दहकती चिता में लपट सी जली हूँ
हर रात सहम जान मौन सवालों से
हर भोर में घबराना धूप के छालों से
मौत मेरा प्रियतम...अब चाहूँ आलिंगन
परित्यक्ता सा जीवन, बोझिल सा हर क्षण
अग्निपरीक्षा में सही कितनी जलन
विश्वास कि बलिवेदी पर रिश्तों का चीरहरण
नहीं चाहा अर्पण...नहीं चाहा तर्पण
चाहा बस भटकाव नहीं चाहा बन्धन
काल के निविड़ अन्धकार में अर्थ खोजता मन
कर के खुद को होम् दी आज पूर्ण आहुति
Monday, February 05, 2007
Nadi mein badh aayi hai kahin paani gira hoga
Abhi dil mein dhadkan jinda hai kahin jaljala utha hoga
Aaj sawaal ka jawaab bas maun hai,wo jane kya sochta hoga
Dard ki sarhadein banate hain,jaane inse aage kya hoga
Kab se nahin huyi hai usse mulakaat,jane wo kis mod pe ruka hoga
Aaj main tanha, wo bhi tanha hai, akela apna caravan hoga...
PS: first line courtesy shreejay sinha...i dont know kisne likhi hai...par meri nahin hai, it just sparked off a chain of thoughts.
Thursday, January 11, 2007
Thaka hun…ruka hun
Par toota nahin hun
Lad ke jindagi se
Aaj main khada hun
Ka chakrvyuh hai
Akele lada hun
Ki ghut jaaye dam ye bhi chaha kisi ne
Rudhir ranjit pairon se athak chala hun
Dukh mera priyatam sath mere chala bas
Muskurahaton se aage kafi tez chala hun
Bekhauf hawaon mein udata phira hun
Mian wo nahin jo kisi bhi path pe chala hun
Har visphot mein bhi avibhajit raha hun
har janm kaal path par akela chala hun
par toota nahin hun
par tootunga nahin…