बुझती हुयी साँसों से हर वादा निभाते हैं
तुझे भूलते जाते हैं...तुझे भूलते जाते हैं
उम्मीद से हर रिश्ता तोडे हुए हम
तेरे दर है जब से छोड़ा..अपने घर भी कहाँ जाते हैं
वीरानियों से निस्बत कुछ दिन से बढ़ गई है
हम तनहा रह के ख़ुद को तेरे और करीब पाते हैं
खुदा भी आजकल है मुझपर मेहरबान अजब देखो
जब चाहती हूँ अश्क उमड़ते चले आते हैं
तू फ़िक्र न कर तेरी रुसवाई का मेरे हमदम
जिससे भी मिलते हैं हर लम्हा मुस्कुराते हैं
अब तो खूब सीख लिया हमने झूठ बोलने का हुनर
कह रहे हैं तुझे भूलते जाते हैं...हाँ, भूलते जाते हैं...
8 comments:
बढिया रचना है।बधाई।
वीरानियों से निस्बत कुछ दिन से बढ़ गई है
हम तनहा रह के ख़ुद को तेरे और करीब पाते हैं
ओर ये
अब तो खूब सीख लिया हमने झूठ बोलने का हुनर
कह रहे हैं तुझे भूलते जाते हैं...हाँ, भूलते जाते हैं...
बेहद खूबसूरत ......बेहद........
एक बात ओर दो पंक्तियों के बीच में गेप बड़ा है.....उन्हें कम करो.....
क्या कहें कविता ही सब कह देती है, ख़ूब सीरत से लबालब।
Really nice poetry my friend. Makes amazing sense....
kya baat hai. bhut sundar rachana.
बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.
good one !!
तेरे दर है जब से छोड़ा..अपने घर भी कहाँ जाते हैं
अब तो खूब सीख लिया हमने झूठ बोलने का हुनर
कह रहे हैं तुझे भूलते जाते हैं...हाँ, भूलते जाते हैं...
हम तनहा रह के ख़ुद को तेरे और करीब पाते हैं
जिससे भी मिलते हैं हर लम्हा मुस्कुराते हैं
.......
अब मैंने कुछ भी नहीं कहना....जो कहूंगा...वो कम होगा.....बहुत ही अच्छी.....अच्छी....अच्छी.....
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