"तुम ये चवन्नी हँसी कब से हंसने लगे"
"जब से तुम ठहर ठहर कर बोलने लगी हो"
"पागल हो क्या, मैं तो वैसी ही हूँ, और वैसे ही बोलती हूँ", तुमने कुछ नहीं कहा, बस देखा...हाँ तुम्हारी आँखें अब भी वैसी ही थी। पारदर्शी.
"जेएनयु जा पाते हो क्या? "
"नहीं", छोटा सा जवाब था तुम्हारा। मैंने पूछना चाहा था, जा नहीं पाते या जाते नहीं हो. फ़िर सोचा कि क्या फर्क पड़ जायेगा जवाब सुनकर.
फ़िर भी मन नहीं माना, पूछ ही लिया, "क्यों?"
"अकेले जाने का मन नहीं करता। "
"अरे ये कोई बात हुयी, अकेले क्यों जाओगे, किसी को ले लो न अपने साथ, अमित तो वहीँ ब्रह्मपुत्र में है न, या शिवम् को ले लों" । मैं इतनी आसानी से हार थोड़े मान जाती.
वो हलके से मुस्कुराया, "उनके साथ भी अकेला ही होता हूँ। "
थोडी देर की खामोशी...सन्नाटा...बिल्कुल वक्त के ठहर जाने जैसा। जैसे सब यहीं टूट के बिखर जायेगा, भूचाल आएगा और हम दोनों जमीन में समा जायेंगे।
पर ऐसा सच में थोड़े होता है, भले ही दिल्ली भूकंप के बिल्कुल epicentre पर हो.
"यहाँ क्यों आई अभी? मुझसे मिलने?", तुमने पूछा.
हम पार्थसारथी रॉक पर बैठे थे, पाँव झुलाते हुए...सामने सूरज डूब रहा था, उसको पिछले तीन सालो में कोई फर्क नहीं पड़ा था, हालाँकि हम बहुत दूर चले गए थे एक दूसरे से.
"नहीं", मैंने पश्चिम में देखते हुए कहा था..."अपने आप से मिलने। तुमने मुझे यहीं चारदीवारी में बंद कर दिया है. काफ़ी दिनों से ख़ुद को ढूंढ रही थी, जब कहीं नहीं मिली तो वापस यहीं आ गई. ठीक किया न?"
"बिल्कुल ग़लत किया... वापस जा पाओगी?", फ़िर से सवाल.
"उहूँ", मैंने सर हिलाते हुए कहा, "जाने थोड़े आई हूँ। मैं तो बस देखने आई हूँ. तुमको भी...ये सब मेरे लिए अब अजायबघर हो गया है. वापस आ के देख सकती हूँ, छू सकती हूँ, पर जी नहीं सकती. "
इतनी बातों और इतनी खामोशी के बीच बस एक "हूँ", तुम्हारी तरफ़ से.
चाँद उग गया था, लाल और सुनहरी चांदनी छिटकने लगी थी। "मैंने कभी इतना लाल चाँद नहीं देखा, यहाँ पर ऐसा क्यों होता है.?" तुम्हारे पास जवाब नहीं था या तुम्हारा देने का मन नहीं था, पता नहीं. तुम चुप रहे.लौटने का वक्त हो रहा था...पत्थरों से उतर कर जैसे ही पगडण्डी पर पहुंचे चाँद अचानक बादल में छुप गया, मैंने देखा उसी पेड़ के नीचे दो लोग खिलखिला उठे...शायद लड़की का पैर फिसल गया था और वो गिरने वाली थी.अंधेरे में मैंने तुम्हारा चेहरा नहीं देखा, पर मैं जानती हूँ कि तुमने भी उन्हें पहचान लिया था.
"तुम इन्ही से मिलने आई थी न?" तुमने पुछा..."हाँ " एक शब्द का जवाब.
और हम दोनों ने देखा...उस लड़की को जिसकी बातें कभी रूकती ही नहीं थी, और उस लड़के को जो खिलखिला के हँसता था...वो लड़की जिसे हवा में दुपट्टा उड़ना पसंद था, आलू के पराठे, गुझिया और मामू के ढाबे से हॉस्टल तक रेस लगना पसंद था...और जिसे वो लड़का पसंद था जो खिलखिला के हँसता था।
24 comments:
badhiya sasmaran.
ये संस्मरण नहीं, काल्पनिक है. कहानी भी कह सकते हैं.
it's really good, whatsoever it is...
शुद्ध कल्पनाएँ इतनी अच्छी कहानियाँ नहीं बन पातीं। इसलिए मैं तो इसे सिर्फ़ कल्पना नहीं मान सकता। :)
कहीं कहीं लगता रहा, जैसे मैंने ही लिखा है कुछ कुछ।
"अजीब शख्स था वो जाते- जाते
इस भीड़ में तन्हाईया दे गया "
मेरे हिसाब से ये कहानी है, इस तर्ज की कई कहानियॉं मैंने पढी हैं और ऐसी कहानियों में एक नॉस्टेल्जिया नजर आता है, जो सहज ही रचनाकार से जुड़ जाती है, या कहें जोड़ दी जाती हैं, इसलिए सस्मरण का भ्रम होना कुछ लोगों के लिए लाजमी है। बहुत सुंदर कहानी।
दिल को कहीं छू जाती है ...कहानी है या संस्मरण .पढने में ख़ुद में सम्मोह लेती है
गौरव जी से सहमत हूं.. मैं भी इसे कल्पना नहीं मान सकता हूं..
लिखा बहुत बढिया है.. दिल कि बात उतार कर रख दिया आपने..
mulrupse ye ek dhara hai jisme main bah gaya,sambhavit rup se ek gahara ehsasat ka pata chalta hai jo dil me kahin chhupa tha.......
jaate-jaate wo sare shahar ko viran kar gaya........
regards
अच्छा तो आप यहाँ पाई जाती हैं और हम आपको आपके ब्लॉग लहरें पर खोज रहे थे . सभी रचनाएँ इस ब्लॉग की पढीं. बहुत ही बहतरीन थीं . क्या बात है ! बहुत उम्दा !
kya kahna hai.yaadon kee braat.
ye braat aisi hai k smirtiyon mein hamesha sukhad ehsaas karati hain.kahani na poora such hoti hai aur na hi jhooth. such ka ehsaas zaroor krati hai.
पढिये: अब पत्रकार निशाने पर , क्लिक कीजिये
http://hamzabaan.blogspot.com/2008/10/blog-post.html
apko diwali ki dhero shubamanayen..
regards
arsh
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकमानांयें
सुंदर प्रस्तुति!!आभार
kaafi acchha hai!
किसी के लिए कभी लिखा था, आपके लिखे को पढ़ते हुए याद आ गई, ये पंक्तियाँ मेरे काम तो नहीं आ सकीं शायद आपके किसी काम की हों -
चंद लफ्जों में गर सिमट जाती मेरी जिंदगी
तो यकीं मानो वह तुम्हारा नाम होता
भई......ऐसा भी काल्पनिक ना गडो कि सब संस्मरण ही समझें....और जो समझ ही लें तो आप सच बताने आ तपको कि ये तो काल्पनिक हैं....रहने दो भई रहने दो.......मगर ये जो भी है......है बड़ा ही स्मूथ...और प्यारा भी सच...
awesum :)
मैंने दुपट्टे के छोर में बाँध लिया था उसे
कल यूँ ही कपड़े समेटते हुए मिला था दुपट्ट
bahut sunder
पूजा जी, क्या आपको नहीं लगता की आपकी यह कल्पनाएँ जेएनयू के हर प्रेमी जोड़े के ऊपर बिलकुल फिट बैठती हैं.
bahut hi sunder.. dil ko chu jaane wali rachna hai.. kisi ko bhi yaadon mein wapas jaane ko majboor kar sakti hai aapki ye rachna..
satish ji..
bas JNU hi nahi.. har collg ki yahi kahani hai..
kalpana ya kahani jo bhi thi acchi lagi
पता है Pooja ......मैं रोज़ आपको पढ़ती हूँ .....एक लाइन ...कुछ पंक्तियाँ ....या ...एक कविता ..ही सही ...पर पढ़ती ज़रूर हूँ
पता है क्यूँ .....क्यूंकि आपको पढ़े बिना ....कुछ अधूरापन सा लगता है मुझे ....सारा दिन ...
आप ..आप ...क्या लिखते हो यार .....
sorry आपको यार बोला ....पर यार तो उसे ही बोलते हैं न ...जो आपको समझता हो ...जो आपको सुनता हो ...जो आपमें जीता हो .....
आपकी रचनाओं मैं भी वाही भाव है मेरे लिए .....लगा की जैसे बिन मिले ही हम .....दोस्त बन गए हों
thankuu Pooja.....मेरी इतनी प्यारी सी दोस्त (yaar) बनने के लिए
Hi Pooja !!!!
Enough praises already. But gotta tell u - u r a great talent. It was an experience, going through your posts and it was overwhelming too.
A request - be my guru!!!! Ur posts have immense impact and it would be an honour to interact wid u (but i m sure u have many fans with such requests so i m not very sure whether this comment will even catch ur attention.) But i will take a chance.
Continue ur great work!!!
All the best
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