Wednesday, February 16, 2011

भीगी शाम

उस दिन किसी बात पर खिलखिला के हँसी थी मैं...कैम्पस में हरी दूब पर बैठे हम कुछ तो सपने बुन रहे होंगे, वो अपने सपनो में यकीन करने के दिन भी तो थे. तुमने कहा था...'हँसती रहा करो, अच्छी लगती हो...तुम्हारी हँसी तुम्हारी आँखों में नाच उठती है'. और मैंने यकीन किये बिना कहा था कि धूप के कारण ये सब दिखा है तुम्हें.
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कुछ ही दिनों के बाद का एक दिन था तब...अचानक से किसी छोटी सी बात से दिल दुःख गया था...सूनी सड़क थी, पेवमेंट पर ही बैठ गयी थी, घुटनों में सर दिए...मुझे बस एक लम्हा अकेले में रोना था, फिर मैं खुद को सम्हाल लेती, आँसू भी आंखन में ही वापस ज़ज्ब हो जाते...तुम जाने कहाँ से उधर रास्ता भूल पड़े...तुम्हें उस दिन उधर नहीं आना था...मैंने सर उठा कर देखा था तुम्हें...तुम हड़बड़ाए बस इतना ही बोल पाए थे...'पता नहीं कहना चाहिए कि नहीं, तुम्हें पहले चुप कराना चाहिए...पर सच में, तुम्हारी रोती हुयी आँखें सबसे ज्यादा खूबसूरत लगती हैं'...और मैं तुम्हारी मासूमियत पर दिल थाम के रह गयी थी...हँस तो दी थी ही.
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इन दोनों इत्तिफकों के बाद...रिश्ते का जितना अरसा गुजरा मैं हँसी कम और रोई ज्यादा...तुमसे प्यार करती थी, तुम्हारे साथ रहना पसंद था, मालूम है क्यों? क्योंकि तुम्हारे साथ थी तो मैं खूबसूरत थी ना...पनियाली, काजल बिखरी आँखों वाली लड़की...पागल, बिखरी लड़की.

Tuesday, January 04, 2011

याद के रेखाचित्र

मैं बहुत अच्छा स्केच नहीं करती...पर कभी कभी मूड होता है तो कुछ पेंसिल से बनाना चाहती हूँ. ठीक ठाक बन भी जाता है, बहुत खूबसूरत नहीं तो बहुत ख़राब भी नहीं बनता. मेरी एक कॉपी है जिसमें मैं अक्सर कुछ कुछ बनाती रहती हूँ...कभी कोई ख्वाब, कभी कोई याद...कभी सामने पड़ा हुआ कुछ.

जैसे वो लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ कर सामने के लैम्प पोस्ट और पेड़ों की तस्वीर बनायी थी...मेरा टाईमपास का यही तरीका रहा है, जब कि मेरे पास कोई किताब नहीं हो या फिर जब तुम्हारी याद आ रही हो और कुछ भी पढने से तुम्हें भूलना मुमकिन ना होता हो.

जब कि तुम याद आते हो, मैं अक्सर कुछ स्केच करने बैठ जाती हूँ...इक इक रेखा में तुमको मुस्कुराते, चिढ़ाते देखती हूँ. तस्वीर कभी मुकम्मल नहीं होती. इस तरह के स्केच का कोई पैटर्न भी नहीं होता...अपनी कॉपी के अनगिन स्केच में, आज भी हर उस स्केच को पहचान सकती हूँ जो तुम्हें याद करके बनायी थी.

कुछ स्केचेस के पन्ने...थोड़े पनियाले होते हैं, गीले होने के बाद सूखे हुए से.

Friday, October 08, 2010

तसव्वुर


बरसों बीते तुमको अपनी आँखों से देखे
आज तुम्हारी सारी पुरानी तसवीरें देखी हैं

जानां तुम अब भी वैसे ही दिखते होगे क्या?

Tuesday, April 06, 2010

शार्पनर

कागज़ पर कई बार खोलने और बंद करने के कारण आये निशान हैं। तहें लगभग कट चुकी हैं। अन्दर थोड़ा बेतरतीबी से चिपकाया हुआ एक थोड़ा टेढ़ा सा वृत्त है, जैसे फेविकोल लगाते हुए हाथ कांप गए हों। वृत्त की कटावदार किनारी फीके लाल रंग की है जिसपर हलकी काली धारियां दिख रही हैं।
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"तुम्हारे पास शार्पनर टर है क्या?" दो चोटियों वाली एक बेहद मासूम सी लड़की ने थोड़ी सकुचाहट , थोड़ी बेपरवाही से पूछा था। उसके सर हिलाने पर उसने अपनी पेन्सिल बढ़ा दी थी, लड़के ने बड़े जतन से पेंसिल छीली और तीखी नोक बना कर वापस कर दी। उसने पेंसिल के छिलके गिराए नहीं, मुट्ठी में भींच लिए थे। उसे लगा वो कोई चोरी कर रहा है। तेज़ क़दमों से घर पहुंचा था और सबकी नज़रें बचाता हुआ दबे पाँव अपने कमरे में घुसा था। मुश्किल हुयी थी एक हाथ से फेविकोल सटाने में...गोल शायद थोड़ा टेढ़ा लगा था।
हफ़्तों उसे अपनी हथेली से उस   चोटी वाली लड़की की खुशबू आती थी।
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वो अब दो बच्चों का पिता है, ..दो प्यारे प्यारे गोल मटोल, गोरे चिट्टे उसने पेंसिल बनाने का बड़ा सा कारखाना खोल लिया है, एक खूबसूरत से घर में रहता है जिसमें बगीचे में झरने लगे हैं. अक्सर विदेश दौरा भी होता ही रहता है उसका। जब भी कहीं से वापस आता है बच्चों के बहुत कुछ लिए आता है, रंग बिरंगे खिलोने, विडियोगेम , .बहुत कुछ...पर कभी भी इस पूरे ताम झाम में उनके लिए बहुत सारे अलग अलग डिजाईन के 'शार्पनर' लाना नहीं भूलता।
कभी भी नहीं।

Monday, March 29, 2010

तुम्हारा नाम


गले में अटका हुआ है कब से
सालों से नहीं लिया है मैंने तुम्हारा नाम

शायद आखिरी हिचकी में होठों पे आ जाए

Friday, March 12, 2010

सिग्नेचर


आज मैंने नयी कलम खरीदी, निब देखने के लिए कागज पर घसीटा, बिना ध्यान दिए...फिर अचानक डर लगा कि जाने क्या लिखा होगा, कनखियाँ चुरा कर नीचे ताका...कागज पर मेरा ही नाम था. अरसा बाद, लगा जैसे अपने आप को फिर से पा लिया है. तुम्हारे नाम, तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारी यादों और हर आदत से निकल आई हूँ. सुकून हुआ, यूँ तुम्हें याद कर के तुम्हें भूलने का.

अब लगता है मैं तुम्हें पूरी तरह भूल चुकी हूँ. शायद.

Monday, October 05, 2009

हाथ की लकीरें


उसके हाथों की लकीरें
बिल्कुल मेरे हाथ की लकीरों जैसी थी...
जैसे खुदा ने हूबहू एक सी किस्मतें दी हों हमें

पर मेरी किस्मत में उसका हाथ नहीं था
न उसकी किस्मत में मेरा

कहीं लकीरों के हेर फेर में खुदा ने गलती कर दी थी
इसलिए उसके हाथ में मेरे नाम की लकीर नहीं थी
न मेरे हाथ में उसके नाम की

इसलिए एक होते हुए भी
हमारा इश्क जुदा था...हमारे इश्क को जुदा होना था

मगर जिंदगी के एक मोड़ पर
इन्तेजार करता मेरा हमसफ़र मुझे मिल गया

क्या मैं उम्मीद करूँ की उसे भी उसका हमसफ़र मिलेगा?