Thursday, July 24, 2008

घर

मिल के बनाते हैं
एक घर
कुछ कुछ हमारे सपनो के जैसा

रजनीगंधा के फूलों सा महकता
चांदनी रातों सा दमकता

बादलों के जैसा फर्श
सूरज की किरणों की हलकी गर्मी

खिलखिलहटें गूँजें जहाँ
मुहब्बत गुनगुनाती रहे

एक घर जहाँ खुशियाँ
बिना दस्तक दिए आ सके

जहाँ ग़मों को आने को
दरार भी न मिले

जहाँ तुम हो मेरे साथ
और शाम को थक के लौटें


तो लगे
मंजिल मिल गई है

Sunday, July 06, 2008

क्यों?

अब नहीं आतीं
रात भर जाग के बात करने वाली रातें...

अब नहीं होते
खामोशी वाले कितने घंटे...

अब नहीं मिलते
मुश्किल से निकाले हुए पाँच मिनट...

अब नहीं आता
चार चार पन्नो का फ़ोन बिल...

अब नहीं जगाती
डर लगने पर किसी भी पहर तुम्हें...

अब नहीं करती
बारिशों में भीगने की जिद...

अब नहीं मांगती
तुम्हारी जूठी कॉफी...

अब नहीं खरीदती
रजनीगन्धा के फूल हर शाम...

फ़िर भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ
क्यों?कैसे?

शायद...ऐसे ही :)