Friday, April 25, 2008

टुकड़े

कहीं कहीं टुकड़ों में
देखती हूँ तुमको...
कभी मुस्कुराते हुए
कहीं खिलखिलाते हुए

जैसे अंजुरी में समेट लेना चाहती हूँ तुम्हें
आँचल में कहीं बाँध लेना चाहती हूँ

जाने किस पगडण्डी के
कौन से मोड़ पर
वो एक लम्हा रुका हुआ है आज भी

जिस लम्हा हमारे रास्ते अलग हो गए थे
जहाँ से मैं कभी लौट नहीं पायी
पर आज भी न जाने क्यों
कभी कभी
लगता है
मुड़ के देखूंगी तो
हम दोनों वही खड़े होंगे

1 comment:

राजीव रंजन प्रसाद said...

पूजा जी,

कविता बहुत अच्छी है खास कर इसका अंत स्वेदित करता है

जिस लम्हा हमारे रास्ते अलग हो गए थे
जहाँ से मैं कभी लौट नहीं पायी
पर आज भी न जाने क्यों
कभी कभी
लगता है
मुड़ के देखूंगी तो
हम दोनों वही खड़े होंगे

बधाई स्वीकारें...

*** राजीव रंजन प्रसाद
www.rajeevnhpc.blogspot.com