Friday, April 25, 2008

यूँ ही

कुछ वक्त का तकाजा कुछ आरजुओं की शरारत

हर राह के आख़िर में अपना घर नज़र आता है

तुम पास से लगते हो जब झुकती हैं पलकें

ख्यालों का ये दीवानापन बेतरहा तडपता है

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कुछ सफ्हे शिकायत करते हैं

तुम्हारे सदियों पहले जाने की

कुछ लम्हे कोशिश करते हैं

तुम्हें याद कर मुस्कुराने की


उन राहों की खामोशियों सी

कुछ गीतों में घुल जाती हूँ

ख़ुद को खोकर जाने कैसे

वो हर लम्हा जी जाती हूँ
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