Wednesday, August 13, 2008

दस्तक...

तुम्हें देखती हूँ सामने
तुम्हारी मुस्कान को छूते ही
पानी की लहरें सी बनती हैं
और खो जाता है झील में नजर आता तुम्हारा अक्स

वैसे ही जैसे बारिशों में
खो जाया करता था मेरा छाता
और भीगते रहते थे हम दोनों

तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है

पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...

और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...

6 comments:

पारुल "पुखराज" said...

पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...

और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...
bahut acchhey..v nice

डॉ .अनुराग said...

तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है

एक ओर "पूजा अंदाज...." बेहद खूबसूरत.........बिल्कुल खालिस ....

Udan Tashtari said...

बहुत खूब! वाह वाह!!

Anonymous said...

तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है

ek common sii baat ko khoobsoorat bana diya aapane! wah!

admin said...

आसान से लफजों से सीधी साधी सी सोच की सफल अभिव्यक्ति।

महेन्द्र मिश्र said...

प्रलय की रात को सोचे
प्रणय की बात क्या कोई
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोयी
खूबसूरत..