Wednesday, November 12, 2008

करवाचौथ

याद है वो एक रात

जब चाँद को दुपट्टे से देखा था मैंने

और तुमने तोहफे में एक अठन्नी दी थी

मैंने दुपट्टे के छोर में बाँध लिया था उसे

कल यूँ ही कपड़े समेटते हुए मिला था दुपट्टा

गांठ खोली तो देखा

चाँद बेहोश पड़ा था मेरी अठन्नी की जगह...

जाने तुम कहाँ होगे

और कहाँ होगी मेरी अठन्नी...

Friday, September 26, 2008

एक शाम जो ढली नहीं...एक चाँद जो निकला नहीं

"तुम ये चवन्नी हँसी कब से हंसने लगे"
"जब से तुम ठहर ठहर कर बोलने लगी हो"

"पागल हो क्या, मैं तो वैसी ही हूँ, और वैसे ही बोलती हूँ", तुमने कुछ नहीं कहा, बस देखा...हाँ तुम्हारी आँखें अब भी वैसी ही थी। पारदर्शी.
"जेएनयु जा पाते हो क्या? "
"नहीं", छोटा सा जवाब था तुम्हारा। मैंने पूछना चाहा था, जा नहीं पाते या जाते नहीं हो. फ़िर सोचा कि क्या फर्क पड़ जायेगा जवाब सुनकर.
फ़िर भी मन नहीं माना, पूछ ही लिया, "क्यों?"
"अकेले जाने का मन नहीं करता। "
"अरे ये कोई बात हुयी, अकेले क्यों जाओगे, किसी को ले लो न अपने साथ, अमित तो वहीँ ब्रह्मपुत्र में है न, या शिवम् को ले लों" । मैं इतनी आसानी से हार थोड़े मान जाती.
वो हलके से मुस्कुराया, "उनके साथ भी अकेला ही होता हूँ "

थोडी देर की खामोशी...सन्नाटा...बिल्कुल वक्त के ठहर जाने जैसा। जैसे सब यहीं टूट के बिखर जायेगा, भूचाल आएगा और हम दोनों जमीन में समा जायेंगे।
पर ऐसा सच में थोड़े होता है, भले ही दिल्ली भूकंप के बिल्कुल epicentre पर हो.

"यहाँ क्यों आई अभी? मुझसे मिलने?", तुमने पूछा.
हम पार्थसारथी रॉक पर बैठे थे, पाँव झुलाते हुए...सामने सूरज डूब रहा था, उसको पिछले तीन सालो में कोई फर्क नहीं पड़ा था, हालाँकि हम बहुत दूर चले गए थे एक दूसरे से.
"नहीं", मैंने पश्चिम में देखते हुए कहा था..."अपने आप से मिलने। तुमने मुझे यहीं चारदीवारी में बंद कर दिया है. काफ़ी दिनों से ख़ुद को ढूंढ रही थी, जब कहीं नहीं मिली तो वापस यहीं आ गई. ठीक किया न?"
"बिल्कुल ग़लत किया... वापस जा पाओगी?", फ़िर से सवाल.
"उहूँ", मैंने सर हिलाते हुए कहा, "जाने थोड़े आई हूँ। मैं तो बस देखने आई हूँ. तुमको भी...ये सब मेरे लिए अब अजायबघर हो गया है. वापस आ के देख सकती हूँ, छू सकती हूँ, पर जी नहीं सकती. "
इतनी बातों और इतनी खामोशी के बीच बस एक "हूँ", तुम्हारी तरफ़ से.

चाँद उग गया था, लाल और सुनहरी चांदनी छिटकने लगी थी। "मैंने कभी इतना लाल चाँद नहीं देखा, यहाँ पर ऐसा क्यों होता है.?" तुम्हारे पास जवाब नहीं था या तुम्हारा देने का मन नहीं था, पता नहीं. तुम चुप रहे.लौटने का वक्त हो रहा था...पत्थरों से उतर कर जैसे ही पगडण्डी पर पहुंचे चाँद अचानक बादल में छुप गया, मैंने देखा उसी पेड़ के नीचे दो लोग खिलखिला उठे...शायद लड़की का पैर फिसल गया था और वो गिरने वाली थी.अंधेरे में मैंने तुम्हारा चेहरा नहीं देखा, पर मैं जानती हूँ कि तुमने भी उन्हें पहचान लिया था.
"तुम इन्ही से मिलने आई थी न?" तुमने पुछा..."हाँ " एक शब्द का जवाब.

और हम दोनों ने देखा...उस लड़की को जिसकी बातें कभी रूकती ही नहीं थी, और उस लड़के को जो खिलखिला के हँसता था...वो लड़की जिसे हवा में दुपट्टा उड़ना पसंद था, आलू के पराठे, गुझिया और मामू के ढाबे से हॉस्टल तक रेस लगना पसंद था...और जिसे वो लड़का पसंद था जो खिलखिला के हँसता था

Tuesday, September 23, 2008

यूँ ही...उल्टा पुल्टा

मुझे एक और जिंदगी चाहिए

जो सिर्फ़ तुम्हारे साथ बिता सकूँ

शुरू से अंत तक...

जब मौत हर घड़ी मँडराती न रहे

सेकंड की टिक टिक के साथ...

हर वक्त अपने साथ ले चलने की धमकी लिए

मुझे एक और जिंदगी चाहिए

ताकि मैं देख सकूँ

जंगल में जाती वो पगडण्डी कहाँ पहुँचती है

ताकि एक बार उस टीले पर से चांदनी रात में उतर सकूँ

एक और जिंदगी

जिसमे मुझे चाय पीने की आदत हो

ताकि तुम्हारा कप छीन कर पी सकूँ

एक और जिंदगी

जिसमे मैं लड़का होऊं

ताकि जबरन किसी रिश्ते में बंधे बिना

मैं हमेशा तुम्हारी दोस्त बनी रह सकूँ.

Wednesday, September 10, 2008

जहाँ चैन से मर जाएँ...

बहुत गुरुर है तुम्हें कि खुदा हो मेरे
इतनी मसरूफियत कि ख्वाब में भी आ नहीं सकते

तरसाओगे अपनी आवाज के एक कतरे को भी
खफा यूँ हो कि एक बार नाम लेकर बुला नहीं सकते

घर बदल लिया कि रास्ते बदल दिए तूने
कहाँ रहने लगे कि हम चाह कर भी जा नहीं सकते

अरसा बीता मगर साँस लेते हैं आज भी वो दिन
तू भी मानता है कि हम उन्हें जिन्दा दफना नहीं सकते

कैसे फुर्सत मिल जाती है तुझे नफरतों के लिए
इतनी छोटी है जिंदगी कि जी भर मुस्कुरा नहीं सकते

तेरी जिंदगी से बस एक कोने की गुज़ारिश है
जहाँ चैन से मर जायें कि कहीं और सुकूं पा नहीं सकते

Thursday, September 04, 2008

तुझे भूलते जाते हैं...






बुझती हुयी साँसों से हर वादा निभाते हैं

तुझे भूलते जाते हैं...तुझे भूलते जाते हैं

उम्मीद से हर रिश्ता तोडे हुए हम

तेरे दर है जब से छोड़ा..अपने घर भी कहाँ जाते हैं

वीरानियों से निस्बत कुछ दिन से बढ़ गई है

हम तनहा रह के ख़ुद को तेरे और करीब पाते हैं

खुदा भी आजकल है मुझपर मेहरबान अजब देखो

जब चाहती हूँ अश्क उमड़ते चले आते हैं

तू फ़िक्र न कर तेरी रुसवाई का मेरे हमदम

जिससे भी मिलते हैं हर लम्हा मुस्कुराते हैं

अब तो खूब सीख लिया हमने झूठ बोलने का हुनर

कह रहे हैं तुझे भूलते जाते हैं...हाँ, भूलते जाते हैं...

Tuesday, August 26, 2008

शायद...

उठी ऐसी घटा नभ में
छिपे सब चाँद औ' तारे
उठा तूफ़ान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे
मगर इस रात में भी लौ लगाये कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है?

गगन में गर्व से उठ उठ
गगन में गर्व से घिर घिर
गरज कहती घटाएं हैं
नहीं होगा उजाला फ़िर
मगर चिर ज्योति में निष्ठा जगाये कौन बैठा है?
अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है ?

प्रलय की रात को सोचे
प्रणय की बात क्या कोई
मगर पड़ प्रेम बंधन में
समझ किसने नहीं खोयी
किसी के पंथ में पलकें बिछाये कौन बैठा है?
अँधेरी रातमे दीपक जलाये कौन बैठा है ?

हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियाँ, कहीं मर्म को छूती हैं, खास तौर से अन्तिम पंक्तियाँ मुझे बहुत ही ज्यादा पसंद हैं। प्रलय की रात और प्रणय की बात एक ही साथ कहना कोई genius ही कर सकता है।
प्रणय, प्यार, अनुराग, स्नेह, प्यार भी बस एक चीज़ नहीं होता...
किसी को चाहना बस चाहने भर के लिए...सिर्फ़ वक्त के होने भर से...ये भी नहीं की उसे यादों में हर पल संजो के रख दिया जाए...वो तो ममी बन जाता है। प्यार...अमूर्त, सजीव, एक एहसास वो वक्त की गणना में नहीं आता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की मैंने किसी से कितने समय के लिए प्यार किया, हमने कितना वक्त साथ गुजरा...या ये भी की हमारी यादें कैसी हैं...
यादों का वो पुलिंदा तो तुम्हारे पास छोड़ के आ गई थी...मेरे पास यादें भी तो नहीं है न...इसलिए तो तुम्हें याद नहीं करती हूँ। प्यार क्या बस होना होता है...
जैसे उस लम्हे के बाद कुछ नहीं था, जैसे उस लम्हे के पहले कुछ नहीं था...वो लम्हा isolation में था ...उसका अपना स्वतंत्र वजूद था...वो मेरे और तुम्हारे होने से नहीं बस अपने आप से था। और वो लम्हा आज भी इतना सच्चा है जैसे तुम्हारे खुल के आती हुयी हँसी...जैसे तुम्हारी आंखों का पारदर्शी होना...जैसे की रातों की वो ठंढ...

आज जो तुम हो और आज जो मैं हूँ...हमसे उन लोगो का कोई रिश्ता नहीं था जो जेएनयू की गलियों में कोहरे ढकी सडकों पर हाथ थामे काफी पीते टहलते रहते थे...वो लोग तुम्हें आज भी मिल जायेंगे...

मैं जाती थी उनसे मिलने कभी कभी...बड़ा सुकून सा मिलता था पर अब बड़ी दूर आ गई हूँ, शायद वो मुझे याद करते हों।

कभी तुम जाते हो क्या...कभी मिल आया करो...उन्हें अच्छा लगेगा
और शायद तुम्हें भी...

Wednesday, August 13, 2008

दस्तक...

तुम्हें देखती हूँ सामने
तुम्हारी मुस्कान को छूते ही
पानी की लहरें सी बनती हैं
और खो जाता है झील में नजर आता तुम्हारा अक्स

वैसे ही जैसे बारिशों में
खो जाया करता था मेरा छाता
और भीगते रहते थे हम दोनों

तलाशती हूँ तुम्हें
जैसे घर लौट कर तलाशते थे हम
कि चाभी किसकी जेब में है

पूछना चाहती हूँ तुमसे
वो राहें कैसी हैं
जिन्हें छोड़ के आ गई हूँ
इतनी दूर...

और उन राहों से पूछना चाहती हूँ
कैसे हो तुम...

Tuesday, August 12, 2008

लौटा सकोगे क्या?

लौटा दो न

वही अधूरी सी कहानी

वो राहें जिनपर जा न सके

वो सावन जिसमें भीगे नहीं

वो चाय जो प्याली में बची रह गई

वो सितारे जो मिल के गिन नहीं सके...

ये गीत मुझे बहुत पसंद है, और जाने कब से...अधूरेपन को जिस तरह से लफ्जों में बांधा गया है कि लगता है अहसासों को बयां करने की हद यही है...



Thursday, July 24, 2008

घर

मिल के बनाते हैं
एक घर
कुछ कुछ हमारे सपनो के जैसा

रजनीगंधा के फूलों सा महकता
चांदनी रातों सा दमकता

बादलों के जैसा फर्श
सूरज की किरणों की हलकी गर्मी

खिलखिलहटें गूँजें जहाँ
मुहब्बत गुनगुनाती रहे

एक घर जहाँ खुशियाँ
बिना दस्तक दिए आ सके

जहाँ ग़मों को आने को
दरार भी न मिले

जहाँ तुम हो मेरे साथ
और शाम को थक के लौटें


तो लगे
मंजिल मिल गई है

Sunday, July 06, 2008

क्यों?

अब नहीं आतीं
रात भर जाग के बात करने वाली रातें...

अब नहीं होते
खामोशी वाले कितने घंटे...

अब नहीं मिलते
मुश्किल से निकाले हुए पाँच मिनट...

अब नहीं आता
चार चार पन्नो का फ़ोन बिल...

अब नहीं जगाती
डर लगने पर किसी भी पहर तुम्हें...

अब नहीं करती
बारिशों में भीगने की जिद...

अब नहीं मांगती
तुम्हारी जूठी कॉफी...

अब नहीं खरीदती
रजनीगन्धा के फूल हर शाम...

फ़िर भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ
क्यों?कैसे?

शायद...ऐसे ही :)

Wednesday, June 18, 2008

यूँ ही




तुम्हारी याद एक ज़ख्म है
जिसे कुरेद कर
मैं अपनेआप को यकीन दिलाती हूँ

कि जिन्दा हूँ मैं अभी...

Tuesday, June 17, 2008

बारिशों की एक शाम...


एक भीगी उदास सी शाम है आज की
थकी हुयी भी लगती है, उनींदी सी है

और तुम भाग रहे होगे
शायद किसी डेडलाईन के पीछे

कब सुधरोगे आलसीराम?
चाय के भरोसे रात गुजारना छोड़ो

तभी तो ऐसा मौसम नहीं देखते हो
मुझे तो खैर क्या खाक याद करोगे

मैं भी रोज़ रोज़ नहीं याद करती हूँ तुम्हें
बस कभी कभी, जब बारिश होती है...तब

वो भी इसलिए
कि अब बारिशें उदास कर देती हैं

और याद आता है कि तुम कहते थे
"रोती हुयी बहुत सुंदर लगती हो"

origin of a name

18th sept, 2005

"You know what? Today i was at PSR with a girl who smelt of cloves&cinnamon, whose eyebrows were like black wisps of the night and whose hair was the night itself. Her laughter had hte timbre of ankle bells. The moon was luxuriating in the reflected glory of her visage. It was such a privilege."


and here is the origin of clovesncinnamon, a question people still ask me sometimes ki "यार इन मसालों का क्या चक्कर है? लौंग और दालचीनी ये भी भला कोई नाम हुआ!"

अरसा बीत गया, पर इस नाम की खुशबू अभी भी आती है, और शायद ताउम्र आती रहेगी...क्योंकि ये मेरी खुशबू है, हाँ इस खूबसूरत नाम के लिए शुक्रिया...श्री

Saturday, May 24, 2008

तुमसे कुछ पूछूँ...

क्या तुम्हें भी मिलते हैं?
मेज़ की दराज साफ करते हुए
हँसी के कुछ टुकडे, तस्वीरों में

क्या कभी दो कप चाय कह देते हो
अनजाने में...
और ख़ुद ही पी लेते हो

क्या कभी लगता है
कि मैं फ़िर से लेट हो गई हूँ
आ जाऊँगी थोडी देर में...

क्या तुम अब भी बारिशों में
पकोड़े खाने और कॉफी पीने जाते हो
उनका स्वाद अब भी वैसा ही लगता है?


क्या तुम्हें भी लगता है
कि गलियाँ सवाल करती है
अकेले क्यों आए हो?

इतने सवालों का तो खैर क्या करोगे
बस इतना बता दो...
क्या उस कमरे को
अब भी घर कहते हो?

Monday, April 28, 2008

शायद

शायद
इस जिंदगी में
एक ऐसा दिन भी आएगा

जब हम एक दूसरे के साथ हँस सकेंगे
कुछ पुराने किस्से याद करके मैं तुम्हें चिढ़ा सकूंगी

कुछ पुराने गाने साथ में गा सकेंगे
शायद तुम्हारा सुर तब तक थोड़ा ठीक हो जाए

शायद बहुत सालों बाद कभी अकेले बैठोगे
तो मेरी किसी शरारत पे हँस सकोगे
और हो सकता है मुझे फ़ोन भी कर लो

या शायद ये भी हो सकता है
किसी दिन किसी दोस्त से पता चले
कि मेरा ऊपर से बुलावा आ गया था

और तुम्हें अफ़सोस हो...
यूं ताउम्र रूठे नहीं रहना चाहिए था...

Friday, April 25, 2008

यादें...



दुपट्टे की ओट/ सुबह की धूप

एक प्याली चाय/ इंतज़ार

उसके ना कहने के बाद भी


शब्दों के साथ खेलना

खामोशी महसूस करना

तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ

जीना...


जिंदगी के इन लम्हों के साथ

चोर सिपाही खेलना

थके थके लम्हों को थपकियाँ देकर सुलाना

कतरा कतरा साँझ

किताबों में बंद करना

हरसिंगार की खुशबू

यादों में सहेजना

कविता सी बन जाना

प्यार, शायद

...




याद नहीं आती है तुम्हारी

तुम चली आती हो

हर रात

जब देखता हूँ तुम्हें

तस्वीरों में मुस्कुराते हुए

मेरे पास ही तो रहती हो तुम

नहीं?


तो कमरे का अँधेरा

उजाला सा क्यों लगने लगता है

मेरे पलकों के पास

तुम्हारी मौजूदगी का अहसास क्यों पाता हूँ

इस तरह की मीठी नींद

तुम्हारी थपकियों के बगैर तो नहीं आती
मैं हमेशा मुस्कुराते हुए तो नहीं सोता हूँ

बताओ ना !!!

तुम ही थी कल भी

सिहरन होने पर चादर ओढ़ाने तुम नहीं आई थी !!

बोल दो, एक और झूठ

जैसे कि हमेशा कहती हो...
वो मैं नहीं थी

वो मैं नहीं थी...

यूँ ही

कुछ वक्त का तकाजा कुछ आरजुओं की शरारत

हर राह के आख़िर में अपना घर नज़र आता है

तुम पास से लगते हो जब झुकती हैं पलकें

ख्यालों का ये दीवानापन बेतरहा तडपता है

--:---::---::---::--

कुछ सफ्हे शिकायत करते हैं

तुम्हारे सदियों पहले जाने की

कुछ लम्हे कोशिश करते हैं

तुम्हें याद कर मुस्कुराने की


उन राहों की खामोशियों सी

कुछ गीतों में घुल जाती हूँ

ख़ुद को खोकर जाने कैसे

वो हर लम्हा जी जाती हूँ
--::--::--::--::--

टुकड़े

कहीं कहीं टुकड़ों में
देखती हूँ तुमको...
कभी मुस्कुराते हुए
कहीं खिलखिलाते हुए

जैसे अंजुरी में समेट लेना चाहती हूँ तुम्हें
आँचल में कहीं बाँध लेना चाहती हूँ

जाने किस पगडण्डी के
कौन से मोड़ पर
वो एक लम्हा रुका हुआ है आज भी

जिस लम्हा हमारे रास्ते अलग हो गए थे
जहाँ से मैं कभी लौट नहीं पायी
पर आज भी न जाने क्यों
कभी कभी
लगता है
मुड़ के देखूंगी तो
हम दोनों वही खड़े होंगे

Friday, January 04, 2008

एक अजीब सच

ना है ये पाना, ना खोना ही है
तेरा ना होना जाने, क्यों होना ही है
तुम से ही दिन होता है, सुरमयी शाम आती है, तुमसे ही, तुमसे ही
हर घडी साँस आती है, ज़िंदगी कहलाती है, तुमसे ही, तुमसे ही
ना है यह पाना, ना खोना ही है
तेरा ना होना जाने, क्यों होना ही है

आँखों में आँखें तेरी, बाँहों में बाँहें तेरी
मेरा न मुझमें कुछ रहा, हुआ क्या
बातों में बातें तेरी, रातें सौगातें तेरी
क्यों तेरा सब यह हो गया, हुआ क्या
मैं कहीं भी जाता हूँ, तुमसे ही मिल जाता हूँ, तुमसे ही, तुमसे ही
शोर में खामोशी है, थोड़ी सी बेहोशी है, तुम से ही, तुम से ही

आधा सा वादा कभी, आधे से ज्यादा कभी
जी चाहे कर लूँ इस तरह वफ़ा का
छोड़े न छूटे कभी, तोड़े न टूटे कभी
जो धागा तुमसे जुड़ गया वफ़ा का
मैं तेरा सरमाया हूँ, जो भी मैं बन पाया हूँ, तुमसे ही, तुमसे ही
रास्ते मिल जाते है, मंजिलें मिल जाती है, तुमसे ही, तुमसे ही
ना है ये पाना, ना खोना ही है
तेरा ना होना जाने क्यों होना ही है


my fav song from the movie...Jab We Met